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देश-प्रेम और साहित्य -सेवा की भावना ने मुंशी प्रेमचन्द को “कलम का सिपाही” बना दिया

ByAdmin

Jul 30, 2024

●जन्म जयंती पर विशेष●

कौन जानता था,एक गरीब किसान, मध्यम वर्गीय किसान का पुत्र कथा -साहित्य सम्राट बनेगा,आखिर समय की मार ने उसे संघर्ष करने को विवश कर दिया ,पढ़ने को और वे पढ़ -पढ़ कर लिखने को मजबूर हो गए,यह कोई और नहीं!मुंशी प्रेमचन्द की दास्तां है।

  लेकिन यह क्या?उनके द्वारा लिखी  गई प्रथम कहानी संग्रह "सोजेवतन"(देश का मातम से संबंधित )जिसमें 5 कहानियां  हैं, क्रमशः दुनियां का सबसे अनमोल रतन,शेख मखमूर,यही मेरा वतन है,शोक का पुरस्कार,सांसारिक प्रेम. जिनमें देश प्रेम और आजादी के दीवानों की शहादत  का भाव पूर्ण चित्रण,अंग्रेज सरकार द्वारा जला दी जाती है!!ऐसा भी हो सकता है,निर्णय सब कुछ सरकार पर?पर क्या  किसी साहित्यकार  की लेखिनी,उसके भीतर  जन सामान्य,जन चेतना,अपने देश के प्रति समर्पण की भावना को कोई मिटा सकता है!!नहीं!!बिल्कुल भी नहीं!!,क्योंकि साहित्य समाज का दर्पण होता  है।  सोजेवतन   प्रेमचंद द्वारा 1906को लिखी गई थी। प्राथमतः प्रेमचंद उर्दू में नवाबराय के नाम से लिखते थे,किंतु अंग्रेज सरकार के द्वारा,उनके लेखन पर प्रतिबंध लगाए जाने के बाद वे  मुंशी दयानारायण निगम के सुझाव पर प्रेमचंद के नाम से लिखना फिर शुरू किया।


       31जुलाई सन 1880में बनारस से 5.6मील दूरी पर स्थित पांडेपुर ग्राम के एक पुरवा (पारा)"लमही "में श्री अजायब राय  ,कृषक एवं डाक विभाग के एक मुंशी के यहां जन्म हुआ,उन्हें महीने में केवल 20रुपया वेतन प्राप्त होता था,माता आनंदी देवी थी,संघर्ष और कष्टप्रद परिस्थितियों के बीच ट्यूशन पढ़ा.पढ़ा कर मिले पैसे से उन्होंने 1919में बनारस से बी ए की शिक्षा अर्जित की,,मिट्टी तेल की कुप्पी (चिमनी)जलाकर  उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की,8वर्ष की अवस्था में मां की मृत्यु और फिर सौतेली मां की देखभाल में पुत्र प्रेम की कमी,अभाव,ने उन्हें बहुत कुछ सिखा दिया।


 पढ़ाई के बाद उन्हें मिशन में अध्यापन करने का अवसर मिला,वे गोरखपुर,कानपुर, वाराणसी, बस्ती में अध्यापन कार्य किए,उसके बाद उनकी डिस्ट्रिक्ट बोर्ड में इंस्पेक्टर पद पर नियुक्ति हो गई,12वर्ष की सेवा कार्य करने के बाद 1920 में उनके जीवन में एकाएक परिवर्तन आया,और वे साहित्य साधना में लगकर कथा शिल्पी हो गए,साहित्य सेवा में अपने जीवन को होम कर अमर हो गए,।साहित्य में वो ताकत है,वह मुर्दा को भी जिंदा कर सकता है,कलम की ताकत ने अंग्रेजी शासन की असलियत दिखा दिया।उनमें गांधी ,दयानंद सरस्वती,राजा राम मोहन राय के साथ ही साथ भक्ति काल के कवि  और समाज सुधारक कबीर का प्रभाव जबर्जस्त पड़ा, उनके कहानी संग्रह  कफ़न और भी उपन्यास में भी गांधी जी,कबीर का प्रभाव देखने को मिल जाता है।प्रेमचंद की शब्द शक्ति का प्रभाव है कि वह सीधे सीधे लोक जन सामान्य की भाषा का प्रयोग करते हैं,जो आम जन,पाठक वर्ग के मन मस्तिष्क को उद्वेलित करता है।महावीर प्रसाद द्वेदी जी ने प्रेमचन्द की भाषा के संबंध में कहते हैं.."प्रेमचंद की  एक एक शब्द की मारक शक्ति इतनी तेज है किर वह सीधा सीधा हृदय से लगता है। कथा - साहित्य  सम्राट प्रेमचंद  का आज हम 144वी जयंती मना रहे हैं,साहित्यकार मरता नहीं,वह अपनी लेखिनी में हमेशा जीवित होकर अमर रह जाता है,शरीर नाशवान जरूर हैं,पर व्यक्ति का  व्यक्तित्व  उसके द्वारा जन सेवा,निस्वार्थ सेवा,सत्य निष्ठा,ईमानदारी हमेशा लोक लोकांतर में अमर रह जाता है,यही कारण है आज  "लोक सदन" समाचार पत्र ने इतिहास रचा है,साहित्य के अध्येता,पाठक, रचनाकारों को   "कलम के सिपाही"के नाम कलम चलाकर  लोक जन,जन जन के समक्ष,विद्वत जनों के भी एक संवाद छेड़ा है यह दूर तलक जाएगी,प्रेमचंद विशेषांक के रूप में मीडिया के अन्य प्रकाशन ने इस प्रकाशन  के संदेश को आगे बढ़ाया है,मैं उनके प्रति भी कृतज्ञता प्रकट कर रहा हूं।"तिलस्म होश रूबा"पढ़कर प्रेमचंद में साहित्य -रचना की रुचि जागृत हुई थी,भौतिक दुनिया से दूर जादूगरी  को प्रेमचंद में पढ़कर  और फिर लगातार,मौलाना शरर,रतननाथ सरशार,मिर्जा रुसुवा, मौलवी मुहम्मद अली को प्रेमचंद ने गहराई से पढ़ा,और उनकी लेखनकला को चिंतन का धरातल भी बनाया,जो उन्हें उपयुक्त लगा,इसी कड़ी में बताना चाहूंगा ,प्रेमचंद ने सरशार की रचना "फसाने आजाद"पढ़कर  उसका "हिंदी अनुवाद"कर डाला।

 उसर समय नवल किशोर प्रकाशन से 1883में  धारावाहिक रूप में प्रकाशन हो चुका था,सृजन का श्री गणेश प्रेमचंद ने लगातार पढ़ते रहने के बाद  उर्दू में सन 1901से सन 1915 तक लिखा,और कथा सम्राट बने।उनका प्रथम उपन्यास"प्रेमा"है,सोजेवतन को जब्त कर जला दिए जाने के बाद वे पुनः 1907में संसार का अनमोल रतन मुंशी प्रेमचन्द के रूप में लिखे।इस कहानी में राष्ट्रीयता,देश प्रेम की भावना है।यह कहानी "जमाना"नाम की उर्दू की प्रसिद्ध पत्रिका में प्रकाशित हुई।सन 1901में  उन्होंने प्रेमा नामक उपन्यास लिखने के बाद  तीन साल में उन्होंने कई उपन्यास,कहानी लिख डाले,सतत लेखन ,साधारण जन के रूप में जमीन पर जब वे बैठकर लिखने लगते थे,,तो उनसे मिलने ,दर्शन करने वाले उन्हीं से पूछ बैठते थे"मुझे प्रेमचंद से मिलना है,तब वे  हंसते हुवे कहते ,"बैठ जाइए पहले"खड़े खड़े आराम से बात नहीं हो पाएगी,कहिए क्या कहना चाहते हैऔर इसी के साथ उनकी लेखिनी कुछ पल के लिए विराम कर लेती थी,वे बोलते मै ही प्रेमचंद हूं"।ऐसी थी उनकी सहजता।

आम जन से मिलने का भाव।जब प्रेमचंद साहित्य में आए तो उनके सामने दुर्गा प्रसाद खत्री,सरस्वती चंद्र,प्रताप मुदलियार प्रकाश में आ चुके थे,प्रेमचंद के पहले साहित्य के पात्र अभिजात्य वर्ग से आते थे,किंतु प्रेमचंद ने उसमें परिवर्तन किया,वे पहले कथाकार हैं जिन्होंने ,सामान्य वर्ग,जनसामान्य को,स्थान दिया,उनके पात्र पूर्व के साहित्यकारों की निर्धारित अहर्ता को पूरी नहीं करते।”गोदान”वर्ग संघर्ष को रेखांकित करने वाला उपन्यास है, सच मायने में प्रेमचंद सामान्य और शोषित जनमानस के शोषण,संत्रास,दुख दर्द और संघर्ष के कथाकार हैं,।मेरे गुरुदेव डॉ पालेश्वर प्रसाद शर्मा,छतीसगढ़ी के मूर्धन्य साहित्यकार कक्षा में जब “गोदान”पढ़ाते थे तब वो प्रेमचंद की अनुभवशीलता को सामने रखकर अभिव्यक्त ऐसा करते थे”मिर्ची खा लेने के बाद आदमी जब सी ..सी की आवाज करने लग जाता है,ठीक उसी तरह प्रेमचंद ने सत्य का संघर्ष,दुख को झेला था,उनके उपन्यास में भारतीय किसान की व्यथा कथा “उपन्यास के नायक “होरी”के और “धनिया ” नायिका के द्वारा अभिव्यक्त होकर कृषक जीवन का महाकाव्य बन गया,गोदान”,गुरुदेव के उच्चारण की अभिव्यक्ति उपन्यास का अंत”और धनिया पछाड़ खाकर गिर पड़ी के साथ “होता था।”मनोवैज्ञानिक,आदर्श और यथार्थ के धरातल पर गोदान सफल उपन्यास है
गोदान का मूल भाष्य मानवीय त्रासदी है।होती हारे को हरिनाम है।उसके लिए संस्कार और आदर्श से बढ़कर कुछ भी नहीं है।धनिया और होरी की संवाद का एक उदाहरण देखिए ,उपन्यासकार परिस्थितियों का दिग्दर्शन ऐसे करा रहे हैं, होरी के गहरे,सांवले, पिचके हुवे,चेहरे पर मुस्कुराहट की मृदुता झलक पड़ी।”धनिया परास्त होकर होरी की लाठी, मिर्जाई जूते,पगड़ी और तंबाखू का बटुआ लाकर सामने पटक दिए।”तब होरी ने धनिया की ओर आंखे तरेर कर कहा..”क्या ससुराल जाना है,जो पांचों पोशाक लाई है?ससुराल में भी तो कोई जवान साली -सलहज नहीं बैठी हैं,जिसे जाकर दिखाऊं,तब धनिया ने लजाते हुवे कहा..”ऐसे ही बड़े सजीलेजवान हो कि साली -सलाहजें तुम्हें देख कर रीझ जायेंगी।”

प्रेमचंद ने लगभग 15उपन्यास,300कहानियां,10अनुवाद,03नाटक लिखा,।प्रेमचंद का गोदान भारतीय कृषक का आइना है।महाजनी सभ्यता तथा सामंती समाज की नंगी हकीकत गोदान में उभर कर आई हैं,”रूढ़ियों के बंधन को तोड़ो,और मनुष्य बनो,देवता बनने का ख्याल छोड़ो,देवता बनकर तुम मनुष्य न रहोगे।”

प्रेमचंद ने 3 नाटक भी लिखा,जिसमें “संग्राम”,(1923,),कर्बला(1924),प्रेम की वेदी(1933),संग्राम नाटक में किसान के साथ पशु पक्षी पर संवेदना,कर्बला में ऐतिहासिकता,धार्मिकता,तथा प्रेम की वेदी में सामाजिकता उभर कर आई है। संग्राम नाटक का एक संवाद का दृश्य,दृष्टब्य है..”अब कोई बाधा न पड़े तो अब की उपज अच्छी होगी,।कैसी मोटी मोटी बालें निकल रही हैं।
कर्बला नाटक लिखते समय मुंशी प्रेमचन्द हिन्दू मुस्लिम वैमनस्य से बेहद चिंतित थे,धार्मिक सामंजस्य स्थापित करने वे संत कबीर की तरह लिए लुकाठी हाथ खड़े थे,इस तरह प्रेमचंद आज भी प्रासंगिक हैं,उनकी कृतियां मानवीय मूल्यों को तराश ,तलाश रही हैं। कर्बला में 5अंक और 42दृश्य हैं,सभी नाटक मंचीय हैं।प्रगतिशील लेखक प्रेमचंद का गोदान,कर्मभूमि,रंगभूमि,सेवासदन,निर्मला,मानसरोवर बहुत चर्चित है,पठनीय है,सराहनीय है,जिसने उनके नाम पर प्रेमचंद युग की संज्ञा दिलाया।
देश -प्रेम ,साहित्यिक अभिरुचि एवं साहित्य सेवा की अदम्य लालसा ने उन्हें काशी से एक साहित्यिक पत्रिका “हंस”निकालने की प्रेरित कर दिया।अपने मित्र जयशंकर प्रसाद को प्रेमचंद ने पत्र लिखा..”काशी से कोई पत्रिका नहीं निकली है,मैं धनी नहीं हूं,मजदूर आदमी हूं,मैने”हंस”निकालने का निश्चय कर लिया है।”दरअसल “हंस”का नामकरण जयशंकर प्रसाद जी ने ही किया था।प्रेमचंद ने अपनी साहित्यिक पत्रिका “हंस”आत्मकथा अंक के पृष्ठ 166पर लिखा है.. “यह 1920की बात है,असहयोग आंदोलन जोरों पर था।जालियां वाला बाग हत्याकांड हो चुका था।उन्हीं दिनों महात्मा गांधी ने गोरखपुर का दौरा किया।गाजिमियां के मैदान में ऊंचा प्लेट फॉर्म तैयार किया गया।दो लाख से कम जमाव नहीं था।ऐसा समारोह मैने अपने जीवन में कभी नहीं देखा था।महात्मा जी,दर्शकों का यह प्रताप था, कि मुझ जैसा मरा हुआ आदमी चेत उठा।दो ही चार दिन बाद मैने अपनी 20साल की नौकरी से इस्तीफा दे दिया।”
हिंदी भाषा के साथ ही साथ स्वतंत्रता की लड़ाई भी लड़ी गई, मैंने गांधी जी का साथ हो लिया।

जनचेतना का मासिक पत्रिका आज भी निकल रही है,1930से 1936तक इसके संपादक मुंशी प्रेमचन्द थे,उसके बाद जैनेंद्र और शिव रानी(प्रेमचंद की द्वितीय पत्नी)साहित्य रचना करने वाली ,फिर उसके बाद शिवदान सिंह चौहान,श्री पतराम,बाद में प्रेमचंद के सुपुत्र अमृतराय ,उसके बाद नरोत्तम नागर, संपादन किए,1959में हंस का बृहत संकलन प्रकाशित हुआ।1986से 2013तक हंस पत्रिका का लगातार संपादन राजेंद्र यादव ने दिल्ली से किया।

   हिंदी में कहानी रचना प्रेमचंद को प्रेरणा श्री  मन्नन द्वेदी गजपुरी के तहसीलदार से मिली उनकी पहली हिंदी कहानी"सप्त सरोज"है।मर्यादा,माधुरी,जागरण,,जमाना आदि पत्रिका का संपादन प्रेमचंद ने किया।जो बनारस से निकलती थी। हंस के लिए ,उसे  बचाए रहने के लिए प्रेमचंद को बहुत मसक्क्त करनी पड़ी,वे फिल्म जगत में प्रवेश किए,मानवता वादी इस कथा शिल्पी,संत को चल चित्रों की दुनियां रास नहीं आया और वे अपनी जगह लौट आए।


 08अक्टूबर 1936को  मुंशी प्रेमचन्द(धनपत राय )का इस संसार से विदा हो गया। अमर हो गए एक युगांतरकारी शिल्पी,रचनाकार,उनका शरीर भर मरा,अपनी कृतियों में वो आज भी जीवित है,अमर हैं, मुंशी प्रेमचन्द आधुनिक युग के मार्ग दृष्टा,को शत शत नमन।

डॉ. फूल दास महंत
प्राध्यापक , मोबाइल
9109374444

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